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ग़ज़ल
मोमिन ओ काफ़िर ओ मुश्रिक न तो मुर्तद मुल्हिद
अपने डाँडे तो किसी से भी कहीं मिलते नहीं
शमीम अब्बास
ग़ज़ल
मुल्ला का ये फ़तवा है कि 'फ़ारूक़' है मुल्हिद
ऐ दीन-ए-मोहम्मद तिरा अल्लाह निगह-बाँ
फ़ारूक़ बाँसपारी
ग़ज़ल
बेबसी इस क़दर बढ़ गई एक मुल्हिद को झुकना पड़ा
और तक़दीर का फ़ैसला रब्ब-ए-‘आलम को करने दिया
जश्न अब्बास
ग़ज़ल
ब-ज़ाहिर बा-अदब यूँ हज़रत-ए-नासेह से मिलता हूँ
मुरीद-ए-ख़ास जैसे मुर्शिद-ए-कामिल से मिलता है