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ग़ज़ल
'मजाज़ी' से 'जिगर' कह दो अरे ओ अक़्ल के दुश्मन
मुक़िर हो या कोई मुनकिर ख़ुदा यूँ भी है और यूँ भी
जिगर मुरादाबादी
ग़ज़ल
हुस्न यकता-ए-दो-आलम है तिरा ही ऐ दोस्त
तेरी वहदत के मुक़िर काफ़िर-ओ-दीं-दार हैं सब
असद अली ख़ान क़लक़
ग़ज़ल
मशवरा रहमत से कर ऐ अद्ल-ए-हक़
क्या सज़ा जो हो ख़ता का ख़ुद मुक़िर
मिर्ज़ा मोहम्मद हादी अज़ीज़ लखनवी
ग़ज़ल
निहाल सब्ज़ रंग में जमाल जिस का है 'मुनीर'
किसी क़दीम ख़्वाब के मुहाल में मिला मुझे
मुनीर नियाज़ी
ग़ज़ल
वो मुंकिर है तो फिर शायद हर इक मकतूब-ए-शौक़ उस ने
सर-अंगुश्त-ए-हिनाई से ख़लाओं में लिखा होगा
जौन एलिया
ग़ज़ल
ज़िंदा रहें तो क्या है जो मर जाएँ हम तो क्या
दुनिया से ख़ामुशी से गुज़र जाएँ हम तो क्या