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ग़ज़ल
बस-कि हूँ 'ग़ालिब' असीरी में भी आतिश ज़ेर-ए-पा
मू-ए-आतिश दीदा है हल्क़ा मिरी ज़ंजीर का
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
बस-कि हैं बद-मस्त-ए-ब-शिकन ब-शिकन-ए-मय-ख़ाना हम
मू-ए-शीशा को समझते हैं ख़त-ए-पैमाना हम
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
तकलीफ़-ए-तकल्लुफ़ से किया इश्क़ ने आज़ाद
मू-ए-सर-ए-शोरीदा हैं क़ाक़ुम से ज़ियादा
इमाम बख़्श नासिख़
ग़ज़ल
मय-कदा गर चश्म-ए-मस्त-ए-नाज़ से पावे शिकस्त
मू-ए-शीशा दीदा-ए-साग़र की मिज़्गानी करे
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
न खींच ऐ सई-ए-दस्त-ए-ना-रसा ज़ुल्फ़-ए-तमन्ना को
परेशाँ-तर है मू-ए-ख़ामा से तदबीर मानी की
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
करे क्या साज़-ए-बीनिश वो शहीद-ए-दर्द-आगाही
जिसे मू-ए-दिमाग़-ए-बे-ख़ुदी ख़्वाब-ए-ज़ुलेख़ा हो
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
हनूज़ आवारा-ए-लैला है जान-ए-रफ़्ता मजनूँ की
मूए पर भी रहा होता नहीं वाबस्ता उल्फ़त का
मीर तक़ी मीर
ग़ज़ल
शाने की हर ज़बाँ से सुने कोई लाफ़-ए-ज़ुल्फ़
चीरे है सीना रात को ये मू-शिगाफ़-ए-ज़ुल्फ़