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ग़ज़ल
हर 'नफ़स' मर मर के जीते हैं तुझे ऐ ज़िंदगी
और जीने की तमन्ना में ही मर जाते हैं लोग
नफ़स अम्बालवी
ग़ज़ल
माजरा क्या था 'नफ़स' किस की थी वो आह-ओ-फ़ुग़ाँ
कौन था कल रात जो ज़िंदान में मारा गया
नफ़स अम्बालवी
ग़ज़ल
शौक़ की आग नफ़स की गर्मी घटते घटते सर्द न हो
चाह की राह दिखा कर तुम तो वक़्फ़-ए-दरीचा-ओ-बाम हुए
इब्न-ए-इंशा
ग़ज़ल
हम-नफ़स-ओ-हबीब-ए-ख़ास बनते हैं ग़ैर किस तरह
बोली ये सर्द-मेहरी-ए-उम्र-ए-गुरेज़-पा कि यूँ
एस ए मेहदी
ग़ज़ल
हम को सहारे क्या रास आएँ अपना सहारा हैं हम आप
ख़ुद ही सहरा ख़ुद ही दिवाने शम-ए-नफ़स परवाने हैं
इब्न-ए-सफ़ी
ग़ज़ल
हक़ाएक़ सर्द हो सकते हैं सब मेहराब-ओ-मिम्बर के
मगर वो ख़्वाब जो रिंदों के पैमाने में ढलते हैं
आल-ए-अहमद सुरूर
ग़ज़ल
अगर ये सर्द-मेहरी तुज को आसाइश न सिखलाती
तो क्यूँकर आफ़्ताब-ए-हुस्न की गर्मी में नींद आती