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ग़ज़ल
मुझे नक़्ल पर भी इतना अगर इख़्तियार होता
कभी फ़ेल इम्तिहाँ में न मैं बार बार होता
कैफ़ अहमद सिद्दीकी
ग़ज़ल
अज़ाँ देते हैं बुत-ख़ाने में जा कर शान-ए-मोमिन से
हरम के नारा-ए-नाक़ूस हम ईजाद करते हैं
चकबस्त बृज नारायण
ग़ज़ल
हाँ कुछ तो हो हासिल समर-ए-नख़्ल-ए-मोहब्बत
ये सीना फफूलों से जो फल जाए तो अच्छा
शेख़ इब्राहीम ज़ौक़
ग़ज़ल
हो क़त्अ नख़्ल-ए-उल्फ़त अगर फिर भी सब्ज़ हो
क्या हो जो फेंके जड़ ही से उस को उखेड़ तू