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ग़ज़ल
बहने वाली नदिया को भी कब इस का एहसास हुआ है
कितनी खेती नष्ट हुई है जब इस ने रुख़ फेरा बाबा
शम्स रम्ज़ी
ग़ज़ल
थीं बनात-उन-नाश-ए-गर्दुं दिन को पर्दे में निहाँ
शब को उन के जी में क्या आई कि उर्यां हो गईं
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
साज़-ए-नशात-ए-ज़िंदगी आज लरज़ लरज़ उठा
किस की निगाहें इश्क़ का दर्द सुना के रह गईं