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ग़ज़ल
अज़िय्यतों में भी बख़्शी मुझे वो ने'मत-ए-सब्र
कि मेरे दिल में गिरह है न मेरे माथे पे बल
अहमद फ़राज़
ग़ज़ल
ख़ुदा ने मुझ को बिन-माँगे ये नेमत दी है 'मंज़र'
तरसते हैं बहुत से लोग ममता देखने को
मंज़र भोपाली
ग़ज़ल
मयस्सर हो तो क़द्रे लुत्फ़ भी नेमत है याँ यारो
किसी का वादा-ए-ऐश-ए-दवाम अच्छा नहीं लगता
आल-ए-अहमद सुरूर
ग़ज़ल
मसरूफ़-ए-शुक्र-ए-ने'मत-ए-पीर-ए-मुग़ाँ रहूँ
अल्लाह मुझ को यूँ ही पिलाए जहाँ रहूँ
मुज़्तर ख़ैराबादी
ग़ज़ल
है इश्क़ वो नेमत जो ख़रीदी नहीं जाती
ये शय है ख़ुदा-दाद ख़ुदा-दाद रहेगी