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ग़ज़ल
मजरूह सुल्तानपुरी
ग़ज़ल
जी में जो आती है कर गुज़रो कहीं ऐसा न हो
कल पशेमाँ हों कि क्यूँ दिल का कहा माना नहीं
अहमद फ़राज़
ग़ज़ल
कर के ज़ख़्मी मुझे नादिम हों ये मुमकिन ही नहीं
गर वो होंगे भी तो बे-वक़्त पशेमाँ होंगे