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ग़ज़ल
पशीमान-ए-सितम वो दिल ही दिल में रहते हैं लेकिन
ख़ुशा हुस्ने कि तर्ज़-ए-ना-पशीमानी नहीं जाती
जिगर मुरादाबादी
ग़ज़ल
जाम ख़ाली थे मगर मय-ख़ाना तो आबाद था
चश्म-ए-साक़ी में तग़ाफ़ुल था पशीमानी न थी
मलिकज़ादा मंज़ूर अहमद
ग़ज़ल
वो दिल जो मैं ने माँगा था मगर ग़ैरों ने पाया है
बड़ी शय है अगर उस की पशेमानी मुझे दे दो
साहिर लुधियानवी
ग़ज़ल
मजरूह सुल्तानपुरी
ग़ज़ल
जी में जो आती है कर गुज़रो कहीं ऐसा न हो
कल पशेमाँ हों कि क्यूँ दिल का कहा माना नहीं
अहमद फ़राज़
ग़ज़ल
तिरी नज़रों से गिर कर आज भी ज़िंदा हूँ मैं क्या ख़ूब
तक़ाज़ा है ये ग़ैरत का पशेमानी से मर जाऊँ
महशर आफ़रीदी
ग़ज़ल
कर के ज़ख़्मी मुझे नादिम हों ये मुमकिन ही नहीं
गर वो होंगे भी तो बे-वक़्त पशेमाँ होंगे