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ग़ज़ल
यूँही बे-सबब न फिरा करो कोई शाम घर में रहा करो
वो ग़ज़ल की सच्ची किताब है उसे चुपके चुपके पढ़ा करो
बशीर बद्र
ग़ज़ल
नगरी नगरी फिरा मुसाफ़िर घर का रस्ता भूल गया
क्या है तेरा क्या है मेरा अपना पराया भूल गया
मीराजी
ग़ज़ल
साहिर लुधियानवी
ग़ज़ल
कभी जादा-ए-तलब से जो फिरा हूँ दिल-शिकस्ता
तिरी आरज़ू ने हँस कर वहीं डाल दी हैं बाँहें
मजरूह सुल्तानपुरी
ग़ज़ल
गली गली तिरी ख़ातिर फिरा ब-चश्म-ए-पुर-आब
लगा के तुझ से दिल अपना बहुत ख़राब हुआ