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ग़ज़ल
फ़ना बुलंदशहरी
ग़ज़ल
बे-पिए हूँ कि अगर लुत्फ़ करो आख़िर-ए-शब
शीशा-ए-मय में ढले सुब्ह के आग़ाज़ का रंग
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
ग़ज़ल
न हवस मुझे मय-ए-नाब की न तलब सबा-ओ-सहाब की
तिरी चश्म-ए-नाज़ की ख़ैर हो मुझे बे-पिए ही सुरूर है
क़तील शिफ़ाई
ग़ज़ल
वही मय-ख़्वार है जो इस तरह मय-ख़्वार हो जाए
कि शीशा तोड़ दे और बे-पिए सरशार हो जाए
जिगर मुरादाबादी
ग़ज़ल
सौ रूप भरे जीने के लिए बैठे हैं हज़ारों ज़हर पिए
ठोकर न लगाना हम ख़ुद हैं गिरती हुई दीवारों की तरह
मजरूह सुल्तानपुरी
ग़ज़ल
हाए वो वक़्त कि जब बे-पिए मद-होशी थी
हाए ये वक़्त कि अब पी के भी मख़्मूर नहीं