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ग़ज़ल
इन दिनों गरचे दकन में है बड़ी क़द्र-ए-सुख़न
कौन जाए 'ज़ौक़' पर दिल्ली की गलियाँ छोड़ कर
शेख़ इब्राहीम ज़ौक़
ग़ज़ल
नक़्श-ए-इबरत दर नज़र या नक़्द-ए-इशरत दर बिसात
दो-जहाँ वुसअ'त ब-क़द्र-ए-यक-फ़ज़ा-ए-ख़ंदा है
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
ब-क़द्र-ए-ज़र्फ़ है साक़ी ख़ुमार-ए-तिश्ना-कामी भी
जो तू दरिया-ए-मै है तो मैं ख़म्याज़ा हूँ साहिल का
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
ब-क़द्र-ए-ज़ौक़-ए-नज़र दीद-ए-हुस्न क्या हो मगर
निगाह-ए-शौक़ में जल्वे समाए हैं क्या क्या