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ग़ज़ल
अहमद फ़राज़
ग़ज़ल
लाग की आग लग उठी पम्बा तरह सा जल गया
रख़्त-ए-वजूद जान-ओ-तन कुछ न बचा जो हो सो हो
शाह नियाज़ अहमद बरेलवी
ग़ज़ल
दीद के क़ाबिल है तो सही 'मजरूह' तिरी मस्ताना-रवी
गर्द-ए-हवा है रख़्त-ए-सफ़र रस्ते का शजर हम-राही है
मजरूह सुल्तानपुरी
ग़ज़ल
दोश पर रख़्त-ए-सफ़र बाँधे है क्या ग़ुंचा सबा
देखते हैं सब को याँ जैसे कि तय्यारी में हम