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ग़ज़ल
फूलों से उस के जबकि चमन में मिलाए होंठ
नाज़ुक ज़ियादा रग से समन के भी पाए होंठ
असद अली ख़ान क़लक़
ग़ज़ल
फ़क़त ज़ाहिद पे क्या मौक़ूफ़ सब की राल टपकी है
वो शोख़ी वो नुमू के दिन वो चेहरा बे-डलक तेरा
शाद अज़ीमाबादी
ग़ज़ल
मय की मज़म्मत और जनाब-ए-शैख़ फिर इस चटख़ारे से
राल यक़ीनन टपकी होगी वर्ना क्यों हैं गीले होंट
मुबारक मुंगेरी
ग़ज़ल
इस तवक़्क़ो' पे कि देखूँ कभी आते जाते
घिस गए पाँव रह-ए-दोस्त में जाते जाते
सय्यद यूसुफ़ अली खाँ नाज़िम
ग़ज़ल
जूँ हिना अपने वो क़दमों से न लगने देंगे
इस तमन्ना में अगर ख़ाक में रल जाऊँगा
जुरअत क़लंदर बख़्श
ग़ज़ल
हासिल उस कूचे में जाने से हमें है और क्या
उल्टे घर अपने मगर ख़ाक में रल कर आना
जुरअत क़लंदर बख़्श
ग़ज़ल
फँस के दुनिया के झमेलों में न तू 'झंझट' कर
राल इस पर न गिरा भाई तिरा कुछ भी नहीं