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ग़ज़ल
मैं उस महफ़िल को ठुकरा कर चला आया हूँ ऐ 'रहमत'
जहाँ महसूस की इख़्लास-ओ-उल्फ़त की कमी मैं ने
रहमत अमरोहवी
ग़ज़ल
साँझ-समय कुछ तारे निकले पल-भर चमके डूब गए
अम्बर अम्बर ढूँढ रहा है अब उन्हें माह-ए-तमाम कहाँ
इब्न-ए-इंशा
ग़ज़ल
तेरा नूर ज़ुहूर सलामत इक दिन तुझ पर माह-ए-तमाम
चाँद-नगर का रहने वाला चाँद-नगर लिख जाएगा
इब्न-ए-इंशा
ग़ज़ल
लोग हिलाल-ए-शाम से बढ़ कर पल में माह-ए-तमाम हुए
हम हर बुर्ज में घटते घटते सुब्ह तलक गुमनाम हुए