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ग़ज़ल
क़ैद में याक़ूब ने ली गो न यूसुफ़ की ख़बर
लेकिन आँखें रौज़न-ए-दीवार-ए-ज़िंदाँ हो गईं
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
साफ़ बे-पर्दा नहीं होता वो ग़ुर्फ़ा में न हो
रौज़न-ए-दर से कभी आँख लड़ाए तो सही
शेख़ इब्राहीम ज़ौक़
ग़ज़ल
फ़लक से हम को ऐश-ए-रफ़्ता का क्या क्या तक़ाज़ा है
मता-ए-बुर्दा को समझे हुए हैं क़र्ज़ रहज़न पर
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
हुई है माने-ए-ज़ौक़-ए-तमाशा ख़ाना-वीरानी
कफ़-ए-सैलाब बाक़ी है ब-रंग-ए-पुम्बा रौज़न में
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
आ ही जाएगी सहर मतला-ए-इम्काँ तो खुला
न सही बाब-ए-क़फ़स रौज़न-ए-ज़िंदाँ तो खुला