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ग़ज़ल
तहव्वुर अली ज़ैदी
ग़ज़ल
हुज़ूर-ए-दावर-ए-महशर क़यामत-ख़ेज़ सामाँ था
हज़ारों हाथ थे और एक क़ातिल का गिरेबाँ था
राजा नौशाद अली ख़ान
ग़ज़ल
दिल की मताअ' तो लूट रहे हो हुस्न की दी है ज़कात कभी
रोज़-ए-हिसाब क़रीब है लोगो कुछ तो सवाब का काम करो
इब्न-ए-इंशा
ग़ज़ल
न भूलेगा हमें 'महरूम' सुब्ह-ए-रोज़-ए-महशर तक
किसी का मौत के आग़ोश में वक़्त-ए-सहर जाना
तिलोकचंद महरूम
ग़ज़ल
मैं दीवाना सही लेकिन वो ख़ुश-क़िस्मत हूँ ऐ 'महशर'
कि दुनिया की ज़बाँ पर आ गया है आज नाम अपना
महशर इनायती
ग़ज़ल
हर इक ने मुझ को दीवाना ही ठहराया है ऐ 'महशर'
सभी क़िस्सा-निगारों के क़लम बहके हुए से हैं
महशर इनायती
ग़ज़ल
रश्क-ए-महशर कोई क़ामत तो निगाहों में जचे
दिल में बाक़ी है अभी ताब-ओ-तवाँ हम-नफ़सो