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ग़ज़ल
बे-साख़्ता निगाहें जो आपस में मिल गईं
क्या मुँह पर उस ने रख लिए आँखें चुरा के हाथ
निज़ाम रामपुरी
ग़ज़ल
मैं ने तो यूँही ज़िक्र-ए-वफ़ा छेड़ दिया था
बे-साख़्ता क्यूँ अश्क तुम्हारे निकल आए
मंसूर उस्मानी
ग़ज़ल
मिरी बे-साख़्ता हिचकी मुझे खुल कर बताती है
तिरे अपनों को गाओं में तो अक्सर याद आता है
आलोक श्रीवास्तव
ग़ज़ल
कैसे कैसे मुझे बे-साख़्ता मिलते हैं ख़िताब
ग़ुस्सा आता है तो क्या क्या वो कहा करते हैं