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ग़ज़ल
इब्न-ए-इंशा
ग़ज़ल
मोहज़्ज़ब दोस्त आख़िर हम से बरहम क्यूँ नहीं होंगे
सग-ए-इज़हार को हम भी तो खुल्ला छोड़ देते हैं
शुजा ख़ावर
ग़ज़ल
आशिक़ाना है अक़ीदा भी हमारा 'माइल'
ले के हम नाम-ए-बुताँ ज़िक्र-ए-ख़ुदा करते हैं