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ग़ज़ल
सज्दा-गाह-ए-अहल-ए-दिल बा'द-ए-फ़ना हो जाइए
सफ़्हा-ए-हस्ती पे इक नक़्श-ए-वफ़ा हो जाइए
हिरमाँ ख़ैराबादी
ग़ज़ल
बादा-नोशी में अगर हुस्न-ए-अक़ीदत है शरीक
बज़्म-ए-साक़ी सज्दा-गाह-ए-दो-जहाँ हो जाएगी
मसूद मैकश मुरादाबादी
ग़ज़ल
बनाया सजदा-गह-ए-इंस-ओ-जिन्न दिला ने मिरे
'जमीला' संग-ए-दर-ए-बू-तुराब कर के मुझे
जमीला ख़ुदा बख़्श
ग़ज़ल
जो सज्दा-गह-ए-इश्क़ की रिफ़अत से हैं वाक़िफ़
वो लोग मिरा नक़्श-ए-क़दम याद करेंगे
औलाद अली रिज़वी
ग़ज़ल
जज़्ब थीं जिस में मिरे ख़ून-ए-वफ़ा की छींटें
बन गया सज्दा-गह-ए-ख़ल्क़ वो दर मेरे बा'द
अली जवाद ज़ैदी
ग़ज़ल
अगर यूँ ही रही गर्दिश में दुनिया तो अजब क्या है
फिर इक दिन सज्दा-गाह-ए-क़ुदसियाँ हो आस्ताँ मेरा
मासूम शर्क़ी
ग़ज़ल
दुनिया-ए-मोहब्बत में काबा था न बुत-ख़ाना
हर नक़्श-ए-क़दम तेरा एक सज्दा-गह-ए-दिल था
मोहम्मद सईद रज़्मी
ग़ज़ल
सर मिरा मेरी जबीन इस बात की थी मुस्तहिक़
सज्दा-गाह-ए-ख़ल्क़ उस का नक़्श-ए-पा क्यूँकर हुआ