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ग़ज़ल
समझते ही नहीं नादान कै दिन की है मिल्किय्यत
पराए खेतों पे अपनों में झगड़ा होने लगता है
वसीम बरेलवी
ग़ज़ल
जिन अश्कों की फीकी लौ को हम बे-कार समझते थे
उन अश्कों से कितना रौशन इक तारीक मकान हुआ