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ग़ज़ल
दाग़ छल्ले का सरापे में कुदूरत-ज़ा हुआ
गुल-रुख़ों नख़्ल-ए-बदन में गुल है गुल में ख़ाक है
मुनीर शिकोहाबादी
ग़ज़ल
हाल इस निगह का उस के सरापे में क्या कहूँ
मोर-ए-ज़ईफ़ फँस गई जा शहद-ए-नाब में
मुफ़्ती सदरुद्दीन आज़ुर्दा
ग़ज़ल
आँखों में जो भर लोगे तो काँटों से चुभेंगे
ये ख़्वाब तो पलकों पे सजाने के लिए हैं