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ग़ज़ल
ये मुल्क अपना है और इस मुल्क की सरकार अपनी है
मिली है नौकरी जब से बग़ावत छोड़ दी हम ने
शहज़ाद अहमद
ग़ज़ल
तिरी सरकार में लाया हूँ डाली हसरत-ए-दिल की
अजब क्या है मिरा मंज़ूर ये नज़राना हो जाए
बेदम शाह वारसी
ग़ज़ल
हटा कर रुख़ से गेसू सुब्ह कर देना तो मुमकिन है
मगर सरकार के बस में नहीं तारे छुपा देना
क़मर जलालवी
ग़ज़ल
हम हैं ख़ामोश कि मजबूर-ए-मोहब्बत थे 'फ़राज़'
वर्ना मंसूब हैं सरकार से बातें क्या क्या
अहमद फ़राज़
ग़ज़ल
वो भी चुप-चाप है इस बार ये क़िस्सा क्या है
तुम भी ख़ामोश हो सरकार ये क़िस्सा क्या है
हस्तीमल हस्ती
ग़ज़ल
सर-ए-तस्लीम है ख़म इज़्न-ए-उक़ूबत के बग़ैर
हम तो सरकार के मद्दाह हैं ख़िलअत के बग़ैर