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ग़ज़ल
मिर्ज़ा मासिता बेग मुंतही
ग़ज़ल
हम मोहतात बहुत थे फिर क्यों ऐसे दर पर दस्तक दी
जिस के घराने की हर पगड़ी का हर शमला ऊँचा था
तलअत इशारत
ग़ज़ल
अब तो ख़तरे में है 'मोहसिन' ख़िर्क़ा-ए-दरवेश भी
तू बचा कर शमला-ए-इज़्ज़त कहाँ ले जाएगा
मोहसिन एहसान
ग़ज़ल
दम-ए-तौफ़ किरमक-ए-शम्अ ने ये कहा कि वो असर-ए-कुहन
न तिरी हिकायत-ए-सोज़ में न मिरी हदीस-ए-गुदाज़ में
अल्लामा इक़बाल
ग़ज़ल
नासिर काज़मी
ग़ज़ल
बज़्म-ए-ख़याल में तिरे हुस्न की शम्अ जल गई
दर्द का चाँद बुझ गया हिज्र की रात ढल गई