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ग़ज़ल
दर्द-ए-दिल दर्द हुआ सीना की सोज़िश भी गई
शर्बत-ए-वस्ल में तेरे हैं ये तासीरें दो
शम्स-उन-निसा बेगम शर्म
ग़ज़ल
पूछा ख़िताब यार से किस तरह कीजिए शाम-ए-वस्ल
चुपके से अंदलीब ने फूल से कुछ कहा कि यूँ
एस ए मेहदी
ग़ज़ल
लुत्फ़ आए जो शब-ए-वस्ल मोअज़्ज़िन सो जाए
क्यूँकि वो गोश-बर-आवाज़ नज़र आते हैं
परवीन उम्म-ए-मुश्ताक़
ग़ज़ल
सदा सुनते ही गोया मुर्दनी सी छा गई मुझ पर
ये शोर-ए-सूर था या वस्ल का इंकार था क्या था
परवीन उम्म-ए-मुश्ताक़
ग़ज़ल
हज़ार शर्म करो वस्ल में हज़ार लिहाज़
न निभने देगा दिल-ए-ज़ार ओ बे-क़रार लिहाज़
परवीन उम्म-ए-मुश्ताक़
ग़ज़ल
देख कर महव-ए-जमाल-ए-यार आँखें हो गईं
जाम-हा-ए-शर्बत-ए-दीदार आँखें हो गईं
ख़्वाज़ा मोहम्मद वज़ीर
ग़ज़ल
शर्बत-ए-ख़ून-ए-जिगर का मज़ा 'आशिक़ पावे
लज़्ज़त-ए-इश्क़-ए-जिगर-ख़ार कूँ कुइ क्या जाने