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ग़ज़ल
फिर सूरज ने शहर पे अपने क़हर का यूँ आग़ाज़ किया
जिन जिन के लम्बे दामन थे उन का इफ़्शा राज़ किया
सिराज अजमली
ग़ज़ल
ये सब कहने की बातें हैं हम उन को छोड़ बैठे हैं
जब आँखें चार होती हैं मुरव्वत आ ही जाती है
ज़हीर देहलवी
ग़ज़ल
तू अपनी आवाज़ में गुम है मैं अपनी आवाज़ में चुप
दोनों बीच खड़ी है दुनिया आईना-ए-अल्फ़ाज़ में चुप
उबैदुल्लाह अलीम
ग़ज़ल
जैसे सुब्ह को सूरज निकले शाम ढले छुप जाए है
तुम भी मुसाफ़िर मैं भी मुसाफ़िर दुनिया एक सराए है
शफ़ीक़ देहलवी
ग़ज़ल
गुफ़्तम कि मुख तिरा क्या गुफ़्ता सुरज सूँ बेहतर
गुफ़्तम कि कान का दर गुफ़्ता कि बह ज़ अख़्तर