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ग़ज़ल
मैं हाथ हाथों में उस के न दे सका था 'शुमार'
वो जिस की मुट्ठी में लम्हा बड़ा सुहाना था
अख़्तर शुमार
ग़ज़ल
वो खेल वो साथी वो झूले वो दौड़ के कहना आ छू ले
हम आज तलक भी न भूले वो ख़्वाब सुहाना बचपन का
आनंद बख़्शी
ग़ज़ल
ये काएनात की सच्चाई अब कहाँ ढूँडूँ
सुहानी रात का मंज़र हो और सुहाना लगे