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ग़ज़ल
मय-कदे में क्या तकल्लुफ़ मय-कशी में क्या हिजाब
बज़्म-ए-साक़ी में अदब आदाब मत देखा करो
अहमद फ़राज़
ग़ज़ल
शबीना अदीब
ग़ज़ल
तकल्लुफ़-बर-तरफ़ तुम कैसे मा'बूद-ए-मोहब्बत हो
कि इक दीवाना तुम से होश में लाया नहीं जाता
मख़मूर देहलवी
ग़ज़ल
तकल्लुफ़ बरतरफ़ नज़्ज़ारगी में भी सही लेकिन
वो देखा जाए कब ये ज़ुल्म देखा जाए है मुझ से
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
वही हुआ कि तकल्लुफ़ का हुस्न बीच में था
बदन थे क़ुर्ब-ए-तही-लम्स से बिखरते हुए
राजेन्द्र मनचंदा बानी
ग़ज़ल
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
पढ़ता नहीं ख़त ग़ैर मिरा वाँ किसी 'उनवाँ
जब तक कि वो मज़मूँ में तसर्रुफ़ नहीं करता
शेख़ इब्राहीम ज़ौक़
ग़ज़ल
ग़ैर यूँ करता है मेरी पुर्सिश उस के हिज्र में
बे-तकल्लुफ़ दोस्त हो जैसे कोई ग़म-ख़्वार-ए-दोस्त
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
शब हुई फिर अंजुम-ए-रख़्शन्दा का मंज़र खुला
इस तकल्लुफ़ से कि गोया बुत-कदे का दर खुला
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
नई तहज़ीब तकल्लुफ़ के सिवा कुछ भी नहीं
चेहरा रौशन हो तो क्या हाजत-ए-गुलगूना फ़रोश
अल्लामा इक़बाल
ग़ज़ल
आदाब-ए-मोहब्बत में भी अजब दो दिल मिलने को राज़ी हैं
लेकिन ये तकल्लुफ़ हाइल है पहला वो इशारा कौन करे