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ग़ज़ल
ऐ बे-दरेग़ ओ बे-अमाँ हम ने कभी की है फ़ुग़ाँ
हम को तिरी वहशत सही हम को सही सौदा तिरा
इब्न-ए-इंशा
ग़ज़ल
रहे उस की रहमत-ए-आम पर ही निगाह-ए-'ऐमन'-ए-मुन्फ़इल
यही एक दामन-ए-ख़ास है जिसे अश्क-ए-तर की तलाश है
ऐमन अमृतसरी
ग़ज़ल
ब-ख़ुलूस 'ऐमन'-ए-बे-नवा उसी आस्ताँ पे जबीं झुका
कोई बे-मुराद नहीं गया शह-ए-दो-जहाँ की जनाब है
ऐमन अमृतसरी
ग़ज़ल
जुनून-ए-इश्क़ में 'ईमाँ' फ़क़त इतना परख लेना
जिसे जुगनू समझती हूँ ख़बर क्या वो शरारा हो