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ग़ज़ल
लौंग खिलाएँ हम जो कभी तो उस को डालो मुँह से थूक
और ये क्यूँ जी रोज़ मुफ़र्रेह छींके खानी औरों से
मारूफ़ देहलवी
ग़ज़ल
चबा के लफ़्ज़ों को थूक डाला ज़बानें आँखों की काट डालीं
कोई नहीं अब समझ सकेगा हमारी वहशत हमारे ग़म को