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ग़ज़ल
इब्न-ए-इंशा
ग़ज़ल
हम को तो रोज़-ए-हश्र का भी कुछ यक़ीं नहीं
क्या मुंतज़िर हूँ वादा-ए-फ़र्दा-ए-यार के
गोपाल मित्तल
ग़ज़ल
है ज़िक्र-ए-यार क्यूँ शब-ए-ज़िंदाँ से दूर दूर
ऐ हम-नशीं ये तर्ज़ ग़ज़ल का कभी न था