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ग़ज़ल
शख़्स-ए-मामूली मिरा जो माल-ए-वाफ़िर छोड़ कर
मरते मरते तोहमतें चंद अपने ज़िम्मे धर गया
कृष्ण मोहन
ग़ज़ल
माल-ओ-ज़र से बहरा-ए-वाफ़िर न देना था अगर
ऐ ख़ुदा तू ने दिया मुझ को दिल-ए-फ़य्याज़ क्यूँ
कृष्ण मोहन
ग़ज़ल
दूसरों के लिए वाफ़िर हैं मिरे पास जवाब
कितने मुश्किल हैं मगर अपने सवालात मुझे
प्रीतपाल सिंह बेताब
ग़ज़ल
मोमिन ख़ाँ मोमिन
ग़ज़ल
सारी दुनिया की नज़र में है मिरा अहद-ए-वफ़ा
इक तिरे कहने से क्या मैं बेवफ़ा हो जाऊँगा