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ग़ज़ल
तिरी कज-अदाई से हार के शब-ए-इंतिज़ार चली गई
मिरे ज़ब्त-ए-हाल से रूठ कर मिरे ग़म-गुसार चले गए
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
ग़ज़ल
मुझे अपने ज़ब्त पे नाज़ था सर-ए-बज़्म रात ये क्या हुआ
मिरी आँख कैसे छलक गई मुझे रंज है ये बुरा हुआ
इक़बाल अज़ीम
ग़ज़ल
ज़ब्त सैलाब-ए-मोहब्बत को कहाँ तक रोके
दिल में जो बात हो आँखों से अयाँ होती है