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ग़ज़ल
इल्तियाम-ए-ज़ख़्म-ए-दिल के हक़ में गर कीजे निगाह
सब्ज़ा-ए-ख़त मरहम-ए-ज़ंगार दोनों एक हैं
जोशिश अज़ीमाबादी
ग़ज़ल
आईनों में चेहरों की सच्चाई दिखाई देती है
क्या चेहरे भी ऐसे ही ज़ंगार किए जा सकते हैं
हिना रिज़्वी
ग़ज़ल
मुझे दुख फिर दिया तू ने मुँडा कर सब्ज़ा-ए-ख़त को
जराहत को मिरे वो मरहम-ए-ज़ंगार बेहतर था
इनामुल्लाह ख़ाँ यक़ीन
ग़ज़ल
चारागर सूदा-ए-अल्मास छिड़क मुश्क के साथ
दिल के ज़ख़्मों पे न रख मरहम-ए-ज़ंगार फ़क़त