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ग़ज़ल
ऐ बर्क़-ए-तजल्ली कौंध ज़रा क्या मुझ को भी मूसा समझा है
मैं तूर नहीं जो जल जाऊँ जो चाहे मुक़ाबिल आ जाए
बहज़ाद लखनवी
ग़ज़ल
गुमाँ होता है 'शाहिद' रेडियो पर सुन के मौसीक़ी
कि पक्के राग और नमकीं ग़रारे एक जैसे हैं
सरफ़राज़ शाहिद
ग़ज़ल
पाज़ेब में कैसी खनक उतरा है कानों में शहद
किस की ये मौसीक़ी है जिस में सुर हमारा मिल गया
दिव्या जैन
ग़ज़ल
मूसा की है क़सम तुझे और कोह-ए-तूर की
नूर-ओ-फ़रोग़-ए-जल्वा-ए-लमआ'न की क़सम