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ग़ज़ल
ख़ून से तर-ब-तर कर के हर रहगुज़र थक चुके जानवर
लकड़ियों की तरह फिर से चूल्हे में जल जो हुआ सो हुआ
निदा फ़ाज़ली
ग़ज़ल
तिरी तक़लीद से कब्क-ए-दरी ने ठोकरें खाईं
चला जब जानवर इंसाँ की चाल उस का चलन बिगड़ा
हैदर अली आतिश
ग़ज़ल
तुम्हारी बज़्म बात इंसानियत की फिर रक़ीबों में
भरे हैं आदमी की सूरतों के जानवर देखो
सफ़ी औरंगाबादी
ग़ज़ल
तुम जो सोचो वो तुम जानो हम तो अपनी कहते हैं
देर न करना घर आने में वर्ना घर खो जाएँगे
निदा फ़ाज़ली
ग़ज़ल
मैं तो जब जानूँ कि भर दे साग़र-ए-हर-ख़ास-ओ-आम
यूँ तो जो आया वही पीर-ए-मुग़ाँ बनता गया