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ग़ज़ल
शहज़ादे तलवार थमा दे अब दरबान के हाथों में
कह दे ख़ाली हाथ न जाए अब के बार सवाली का
मुमताज़ गुर्मानी
ग़ज़ल
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
ग़ज़ल
था दरबार-ए-कलाँ भी उस का नौबत-ख़ाना उस का था
थी मेरे दिल की जो रानी अमरोहे की रानी थी
जौन एलिया
ग़ज़ल
वाँ गया भी मैं तो उन की गालियों का क्या जवाब
याद थीं जितनी दुआएँ सर्फ़-ए-दरबाँ हो गईं
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
दरबान भी याँ कच्चे घड़े पानी भरे है
वो हैं हमीं याँ जिन को कि दरबान का डर है