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नज़्म
है अहल-ए-दिल के लिए अब ये नज़्म-ए-बस्त-ओ-कुशाद
कि संग-ओ-ख़िश्त मुक़य्यद हैं और सग आज़ाद
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
नज़्म
उफ़ुक़ पे डूबते दिन की झपकती हैं आँखें
ख़मोश सोज़-ए-दरूँ से सुलग रही है ये शाम!
फ़िराक़ गोरखपुरी
नज़्म
खा के तंदुल कहीं ए'ज़ाज़ सुदामा को दिया
साग ख़ुश हो के 'बिदुर-जी' का किया नोश कहीं