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नज़्म
मुझ से पहली सी मोहब्बत मिरी महबूब न माँग
मैं ने समझा था कि तू है तो दरख़्शाँ है हयात
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
नज़्म
इलाही फिर मज़ा क्या है यहाँ दुनिया में रहने का
हयात-ए-जावेदाँ मेरी न मर्ग-ए-ना-गहाँ मेरी
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
हयात-ए-शौक़ का वही सराब ढूँढता हूँ मैं
जिन्हें सहर निगल गई वो ख़्वाब ढूँढता हूँ मैं
आमिर उस्मानी
नज़्म
किस से कहूँ कि ज़हर है मेरे लिए मय-ए-हयात
कोहना है बज़्म-ए-कायनात ताज़ा हैं मेरे वारदात!
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
दफ़्तर-ए-हस्ती में थी ज़र्रीं वरक़ तेरी हयात
थी सरापा दीन ओ दुनिया का सबक़ तेरी हयात
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
जो ताक़-ए-हरम में रौशन है वो शम्अ यहाँ भी जलती है
इस दश्त के गोशे गोशे से इक जू-ए-हयात उबलती है