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नज़्म
अब भी दिलकश है तिरा हुस्न मगर क्या कीजे
और भी दुख हैं ज़माने में मोहब्बत के सिवा
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
नज़्म
'ज़ेहरा' ने बहुत दिन से कुछ भी नहीं लिक्खा है
हालाँकि दर-ईं-अस्ना क्या कुछ नहीं देखा है
ज़ेहरा निगाह
नज़्म
यही दस बीस अगर हैं कुश्तागान-ए-ख़ंजर-अंदाज़ी
तो मुझ को सुस्ती-ए-बाज़ू-ए-क़ातिल की शिकायत है