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नज़्म
यहाँ से दोस्ती की कितनी तामीरें उठाई हैं
रफ़ाक़त की हयात-अफ़रोज़ दुनियाएँ बसाई हैं
अब्दुल अहद साज़
नज़्म
कौन सी नई दुनियाएँ आबाद करने में मसरूफ़ हो गई है तू
इस हमारी दुनिया की जानिब भी पलट कर देख
मोहम्मद हनीफ़ रामे
नज़्म
बसारत उस बला की है कि ज़र्रे में भी दुनियाएँ दिखाई दे रही हैं
जहान-ए-आगही के रास्तों पर चलते चलते