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नज़्म
यूँ न था मैं ने फ़क़त चाहा था यूँ हो जाए
और भी दुख हैं ज़माने में मोहब्बत के सिवा
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
नज़्म
ज़मीन नश्शा, ज़मान नश्शा, जहान नश्शा, मकान नश्शा
मकान क्या? ला-मकान नश्शा, डुबो रहे हैं पिला रहे हैं
जिगर मुरादाबादी
नज़्म
नून मीम राशिद
नज़्म
हस्ती-ओ-नीस्ती के बर्ज़ख़ में पा-ब-गुल हैं
हमारे दिन-रात इसी दरा-ए-ज़मान वक़्फ़े से मुत्तसिल हैं