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नज़्म
जोश मलीहाबादी
नज़्म
सुना? वो क़ादिर-ए-मुतलक़ है एक नन्ही सी जान
ख़ुदा भी सज्दे में झुक जाए सामने उस के
फ़िराक़ गोरखपुरी
नज़्म
मैं उस वादी के ज़र्रे ज़र्रे पर सज्दे बिछा दूँगा
जहाँ वो जान-ए-काबा अज़्मत-ए-बुत-ख़ाना रहती थी