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नज़्म
ज़ब्त पर क़ुदरत है तुझ को ये कि तू ख़ामोश है
तेरे सीने में अगरचे यास-ओ-ग़म का जोश है
साक़िब कानपुरी
नज़्म
गोशा-ए-दिल में तेरा दर्द छुपाया मैं ने
चश्म-ए-तर को भी न ये राज़ बताया मैं ने
राबिया सुलताना नाशाद
नज़्म
आलम ये था क़रीब कि आँखें हों अश्क-रेज़
लेकिन हज़ार ज़ब्त से रोने से की गुरेज़
चकबस्त बृज नारायण
नज़्म
तड़प रहे हैं जो तूफ़ाँ मिरे ख़यालों में
वो बंद-ए-ज़ब्त-ओ-तहम्मुल से आ न टकराएँ