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नज़्म
वो है ताबीर का अफ़्लास जो ठहरा है फ़न मेरा
सुख़न यानी लबों का फ़न सुख़न-वर यानी इक पुर-फ़न
जौन एलिया
नज़्म
लबों की मद्धम तवील सरगोशियों में साँसें उलझ गई थीं
मुँदे हुए साहिलों पे जैसे कहीं बहुत दूर
गुलज़ार
नज़्म
जुम्बिश हुई लबों को भरी एक सर्द आह
ली गोशा-हा-ए-चश्म से अश्कों ने रुख़ की राह
चकबस्त बृज नारायण
नज़्म
जिगर मुरादाबादी
नज़्म
लबों पे सो गई कलियों की मुस्कुराहट भी
ज़रा भी सुम्बुल-ए-तुर्की लटें नहीं हिलतीं