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नज़्म
उस दिन बस्ती में रोने वालों का दिन था और तुम ने कहा था
ये लोग समुंदर मथ कर पीते थे अब रोते हैं
मोहम्मद अनवर ख़ालिद
नज़्म
औरतें हथेलियों से चाँद बुन रही हैं
दूध की कटोरियों से सूरजों की आत्माएँ मथ रही हैं
सलाहुद्दीन परवेज़
नज़्म
मुझ से पहली सी मोहब्बत मिरी महबूब न माँग
मैं ने समझा था कि तू है तो दरख़्शाँ है हयात
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
नज़्म
इन किताबों ने बड़ा ज़ुल्म किया है मुझ पर
इन में इक रम्ज़ है जिस रम्ज़ का मारा हुआ ज़ेहन
जौन एलिया
नज़्म
मुझ से पहले कितने शा'इर आए और आ कर चले गए
कुछ आहें भर कर लौट गए कुछ नग़्मे गा कर चले गए