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नज़्म
तमाशा इक अजब सा एक दिन यूँ राह में देखा
किसी को देखते हैं लोग इक मजमा इकट्ठा है
सय्यद हशमत सुहैल
नज़्म
मजमा-ए-ख़ूबाँ हुजूम-ए-आशिक़ाँ और जोश-ए-गुल
देख इन रंगों को क्या क्या खिलखिलाती है बहार
नज़ीर अकबराबादी
नज़्म
शादी का मकाँ घर मिरा मालूम न हो क्यूँ
मजमा' हो जब इतना तो भला धूम न हो क्यूँ
अली मंज़ूर हैदराबादी
नज़्म
भरे मजमे' में अपने हुस्न का एलान करती है
तमाशा देखने वालों की रूहों में उतरती है