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नज़्म
नहीं तेरा नशेमन क़स्र-ए-सुल्तानी के गुम्बद पर
तू शाहीं है बसेरा कर पहाड़ों की चटानों में
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
ऐ ख़ाक-नशीनो उठ बैठो वो वक़्त क़रीब आ पहुँचा है
जब तख़्त गिराए जाएँगे जब ताज उछाले जाएँगे
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
नज़्म
बद-बख़्त फ़ज़ाएँ किस की हैं बरबाद नशेमन किस के हैं
कुछ हम भी सुनें हम को भी सुना
साहिर लुधियानवी
नज़्म
फ़लक को क्या ख़बर ये ख़ाक-दाँ किस का नशेमन है
ग़रज़ अंजुम से है किस के शबिस्ताँ की निगहबानी
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
इसी के ख़र्रमी-ए-आग़ोश में उस का नशेमन था
इसी शादाब वादी में वो बे-बाकाना रहती थी