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नज़्म
एक इक जिस्म पे हो अतलस ओ कम-ख़्वाब ओ समोर
अब ये बात और है ख़ुद चाक-गरेबाँ हूँ मैं
असरार-उल-हक़ मजाज़
नज़्म
जो सिलने को दिए कपड़े वो हैं सब हब्स-ए-बेजा में
कि दर्ज़ी छुप गया जब अतलस-ओ-कमख़्वाब-ओ-दीबा में