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नज़्म
कलमा भी पढ़ते जाते हैं रोते हैं ज़ार-ज़ार
सब आदमी ही करते हैं मुर्दे के कारोबार
नज़ीर अकबराबादी
नज़्म
जबकि जारी हो ज़बानों पर ये कलमा सुब्ह ओ शाम
नग़्मा-हा-ए-साज़ से बढ़ कर है जो मोजज़ निज़ाम
सफ़ीर काकोरवी
नज़्म
कलमा-ए-हक़ कहा
मक़्तलों क़ैद-ख़ानों सलीबों में बहता लहू उन के होने का ऐलान करता रहा
इफ़्तिख़ार आरिफ़
नज़्म
कुछ और नहीं तो आज शहादत का कलमा सुनने को मिलेगा
कानों के इक सदी पुराने क़ुफ़्ल खुलेंगे
अहमद नदीम क़ासमी
नज़्म
दा'वा तो ये है हम भी मुसलमान हैं ज़रूर
कलमा जो पोछिए तो नहीं याद है हुज़ूर